उदय प्रकाश जी की कविता “चलो कुछ बन जाते हैं”, फिल्म ‘आँखो देखी’ के climax और कुछ काल्पनिक सी लगने वाली सच्ची गाथाओँ से प्रेरित!
अगले जन्म में
तुम को रसगुल्ला बहुत पसंद है न!
चलो मैं अगले जन्म में छेना बन जाऊँगा
कहीं पर मलमली, कहीं पर खुरदुरा, कहीं सख्त, कहीं दबदबा
तुम गुड़ हो जाना
घुला देना अपनी सारी मिठास मुझमें, खीच लेना मुझसे यह श्वेत रंग, बना देना मटमैला
गर्मी की धूप में मटके में भर कर कोई मिठाई वाला ले जा रहा होगा हमें किसी मेले में बेचने के लिये. तब किसी छोटे से बच्चे के मुंह खोलते ही हम घुल कर सदा के लिये एक हो जायेंगे.
हाँ, और फिर कुछ के कुछ बन जायेंगे!
अच्छा तो ऐसा करते हैं, मैं अगले जन्म में कील बनुंगा और तुम बन जाना एक portrait. सालों तक टंगे रहेंगे एक ही दीवार पर. परीवार की कितनी पीढ़ीयाँ हमें पूजेंगी, सोचो!
और अगर तुमहारी तरह परीवार के किसी शेहज़ादे ने आपना धर्म ही बदल लिया तो?
तो फिर मैं कस्तूरी मृग बन जाऊंगा और तुम मेरे अंदर की सुगंध. मैं उम्र भर तुम्हें ढूँडने की acting करूँगा
अच्छा, अगर तुम्हें कोई दूसरी गंध आकर्शित कर गयी तो?
तो ऐसा करना, तुम algae बन जाना और मैं fungus
मैं निचोड़ लूँगा रस , तुम बानाना उससे खाना
lichen बन कर इन चट्टानों को फिर हरा भरा कर देंगे
कोई कुरेद ले हमें और बना दे अम्ल का मानक, फिर क्या करोगे?
यह घड़ी भी किसी litmus test से कम है भला? चलो फिर अगले जन्म में हम हम ही रहेंगे, तुम तुम ही रहना. हमारे बीच जो भी दीवारें होंगी, सब तोड़ कर आ चलेंगे पहाड़ों के बीच और डूब जायेंगे इन हवाओँ में गोते खाते हुए!
तो चलो, 1 2 और 3…….अरे, तुम कहां रह गयी पीछे? मंज़िल कितनी नज़दीक है, देखो!
सामने वाले पहाड़ पर भी इंतज़ार कर रहा है कोई मेरा, मुझे जाना होगा. किसमत ने चाहा तो हम फिर मिलेंगे, पहाड़ की इसी चोट पर, अगले जन्म में!